व्याख्या - Explanation

 

व्याख्या (Explanation)  

गद्य और पद्य में व्यक्त भावों अथवा विचारों को विस्तारपूर्वक लिखने को व्याख्या कहते हैं।
सरल शब्दों में- 'व्याख्या' किसी भाव या विचार के विस्तार और विवेचन को कहते हैं।

व्याख्या में पद-निर्देश, अलंकार, कठिन शब्दों का अर्थ तथा समानांतर पंक्तियों से तुलना आवश्यक है। व्याख्या भावार्थ है, और आशय। यह इन दोनों से भित्र है। नियम भी भित्र है। 'व्याख्या' किसी भाव या विचार के विस्तार और विवेचन को कहते हैं। इसमें परीक्षार्थी को अपने अध्ययन, मनन और चिन्तन के पदर्शन की पूरी स्वतन्त्रा रहती है।

व्याख्या के प्रकार

प्रसंग-निर्देश व्याख्या का अनिवार्य अंग है। इसलिए व्याख्या लिखने के पूर्व प्रसंग का उल्लेख कर देना चाहिए, पर प्रसंग-निर्देश संक्षिप्त होना चाहिए। परीक्षा-भवन में व्याख्या लिखते समय परीक्षार्थी प्रायः दो-दो, तीन-तीन पृष्ठों में प्रसंग-निर्देश करते है और कभी-कभी मूलभाव से दूर जाकर लम्बी-चौड़ी भूमिका बांधने लगते हैं। यह ठीक नहीं। उत्तम कोटि की व्याख्या में प्रसंग-निर्देश संक्षिप्त होता है। ऐसी कोई भी बात लिखी जाय, जो अप्रासंगिक हो। अप्रासंगिक बातों को ठूँस देने से अव्यवस्था उत्पत्र हो जाती है। अतः परीक्षार्थी को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि व्याख्या में कोई बात फिजूल और बेकार हो। प्रसंग-निर्देश विषय के अनुकूल होना चाहिए।

व्याख्या में मूल के भावों और विचारों का समुचित और सन्तुलित विवेचन होना चाहिए। यहाँ परीक्षार्थी को अपनी स्वतन्त्र बुद्धि और विद्या से काम लेने का पूरा अधिकार है। विषय के विवेचन में विचारों के सत्यासत्य का निर्णय किया जाता है। इसलिए, विचारो का विवेचन में विचारों के सत्यासत्य का निर्णय किया जाता है। इसलिए, विचारों का विवेचन करते समय छात्र को विषय के गुण और दोष, दोनों की समीक्षा करनी चाहिए। यदि वह चाहें, तो उसके एक ही पक्ष का विवेचन कर सकता है। लेकिन, अच्छी व्याख्या में विचारों या भावों का सन्तुलित विवेचन अपेक्षित है। यदि छात्र मूल के भावों से सहमत है, तो उसे उसकी तर्कसंगत पुष्टि करनी चाहिए और यदि असहमत है, तो वह उसका खण्डन भी कर सकता है।

व्याख्या में खण्डन-मण्डन से पहले मूल के भावों का सामान्य अर्थ अथवा भावार्थ लिख देना चाहिए, ताकि परीक्षक यह जान सके कि छात्र ने उसका सामान्य अर्थ भली भाँति समझ लिया है। व्याख्या में भावार्थ अथवा आशय का इतना ही काम है। भावार्थ के बाद विषय का विवेचन होना चाहिए।

व्याख्या लिखने के लिए पहले लम्बी-लम्बी पंक्तियाँ दी जाती थी। लेकिन अब एक-दो पंक्तियों या वाक्यों का अवतरण दिया जाता है। इन दो तरह के अवतरणों की व्याख्या लिखते समय थोड़ी सावधानी बरतनी चाहिए। जब कोई बड़ा-सा अवतरण व्याख्या के लिए दिया जाय, तब समझना चाहिए कि इसमें अनेक विचारों का समावेश हो सकता है। ऐसी स्थिति में विद्यार्थी को अवतरण के मूल और गौण भावों की खोज करनी चाहिए। इसके विपरीत, जब एक-दो पंक्तियों का अवतरण दिया जाय, तब छात्रों को उन्हीं शब्दों का विवेचन करना चाहिए, जिनसे भाव स्पष्ट हो जाय। छोटे अवतरणों में भावों की अधिकता रहती है। व्याख्या में इन्हीं गूढ़ भावों का विस्तार होना चाहिए।

सम्यक विवेचन के बाद अन्त में कठिन शब्दों का अर्थ, टिप्पणी के रूप में दे देना चाहिए। इस तरह व्याख्या समाप्त होती है।

व्याख्या के लिए आवश्यक निर्देश

मूल अवतरण से व्याख्या बड़ी होती है। इसकी लम्बाई-चौड़ाई के सम्बन्ध में कोई निश्र्चित सलाह नहीं दी जा सकती। छात्रों को सिर्फ यह देखना है कि मूल भावों अथवा विचारों का समुचित और सन्तोषजनक विवेचन हुआ या नहीं। इन बातों को ध्यान में रखकर अच्छी और उत्तम व्याख्या लिखी जा सकती है। इसके बजाय इसमें निम्नलिखित बातें होनी चाहिए-

(1) व्याख्या में प्रसंग-निर्देश अत्यावश्यक है।
(2)
प्रसंग-निर्देश संक्षिप्त, आकर्षक और संगत होना चाहिए। 
(3)
व्याख्या में मूल विचार या भाव का संतोषपूर्ण विस्तार हो। 
(4)
अंत में शब्दार्थ लिखे जायँ। 
(5)
मूल के विचारों का खण्डन या मण्डन किया जा सकता है।
(6)
मूल के विचारों के गुण-दोषों पर समानरूप से प्रकाश डालना चाहिए। 
(7)
यदि कोई महत्त्वपूर्ण बात हो, तो उसपर अन्त में टिप्पणी दे देनी चाहिए।

यहाँ हम कुछ व्याख्या का उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं।

(1) सिद्धि-हेतु स्वामी गये, यह गौरव की बात,
पर चोरी-चोरी गये, यही बड़ा व्याघात।

व्याख्या :- ये पंक्तियाँ डा० मैथलीशरण गुप्त के 'यशोधरा' काव्य से ली गयी हैं। कुछ वर्षों तक दाम्पत्य-जीवन बिताने के बाद यशोधरा (सिद्धार्थ की धर्मपत्नी) ने यह सहज ही जान लिया था कि उसका पति सांसारिक सुखों की सीमाओं में बँधने वाला साधारण मनुष्य नहीं हैं। इसका आभास उसे पहले ही मिल चुका था। अतः वह जानती थी कि सिद्धार्थ का वन-गमन या महाभिनिष्क्रमण स्वाभाविक था। लेकिन गौतम एक रात चुपके से घर छोड़ कर चले गये। यशोधरा को इस बात का बड़ा दुःख हुआ कि उसके स्वामी उससे बिना कुछ कहे, इस तरह चुपके-से क्यों चले गये। यह बात उसे काँटे की तरह चुभने लगी।

अर्थ-विश्लेषण :- यशोधरा यह जान कर गौरवान्वित हुई कि उसके पति जीवन के एक महान् लक्ष्य की पूर्ति मे, संसार के कल्याणार्थ गये हैं। सिद्धार्थ-जैसे महापुरुष की धर्मपत्नी होने का उसे गर्व हैं। लेकिन दुःख की बात यह हैं कि वे बिना कुछ कहे-सुने चले गये। सिद्धार्थ का 'चोरी-चोरी' जाना यशोधरा को बहुत खला, जैसे उसके हृदय पर गहरा आघात हुआ। वह तड़प उठी और विकल हो गयी।

ऐसा कर गौतम ने नारी के स्त्रियोचित अधिकार, विश्वास और स्वत्व पर गहरी चोट की। नारी का स्वाभाविक मान इसे क्यों कर सहन करे ! आदर्श नारी सब कुछ सहन कर सकती हैं पर अपमान का घूँट कैसे पी सकती हैं ? कभी-कभी नारी की आत्म-गौरव-भावना स्त्री-हठ का रूप धारण कर लेती हैं। लेकिन यशोधरा में इसका अभाव हैं। वह अपने पति की पलायनवादी मनोवृत्ति का विरोध करती महापुरुषों को 'चोरी-चोरी' गृह-त्याग करना शोभा नहीं देता।

विवेचन :- प्रश्न यह है कि यशोधरा से बिना कुछ कहे सिद्धार्थ ने पलायन क्यों किया ?सिद्धार्थ, श्रृंगार-भाव से सही, कर्त्तव्य-भाव से अवश्य ही यशोधरा को, अपने गृह-त्याग का, पूर्व परिचय दे देना चाहते थे। लेकिन नारी की स्वाभाविक दुर्बलता से वे अच्छी तरह अवगत थे। उन्हें यह शंका थी कि यदि वे पलायन की बात यशोधरा से कह देंगे तो वह निश्चय ही उनके पथ की बाधा बन जायगी। फिर उनकी योजना सफल हो पाती। उनकी शंका निराधार थी। वे अपने ही वंश में राम के साथ वन जाने वाली सीता का हठ देख चुके थे।

ऐसी अवस्था में सिद्धार्थ के लिए दूसरा और कोई रास्ता था। अतः यह स्पष्ट है कि सिद्धार्थ का 'चोरी-चोरी' जाना सार्थक था। लेकिन यशोधरा के लिए यह अभिशाप हो गया। एक सजग और जागरूक नारी के लिए इतना क्या कम था कि उसका पति उसे 'मुक्ति-मार्ग की बाधा नारी' समझे। फिर नारी का स्वाभिमान क्यों उत्तेजित हो ? सच तो यह हैं कि नारी और पुरुष की स्वाभाविक प्रवृत्तियों के अनुसार यशोधरा और सिद्धार्थ के दृष्टिकोण अपने में सत्य हैं। दोनों के विचार स्वाभाविक हैं।

शब्दार्थ :- सिद्धि-हेतु-सांसारिक माया तथा बन्धनों को जीतने के लिए। व्याघात-गहरा आघात।

यहाँ हम व्याख्या का दूसरा उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं।

(2) तुमने मुझे पहचाना नहीं। तुम्हारी आँखों पर चर्बी छाई हुई है। कंगाल ही कलियुग का कल्कि-अवतार है।

व्याख्या :- ये पंक्तियाँ हिंदी के सुप्रसिद्ध कहानी-लेखक राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह की कहानी 'दरिद्रनारायण' से ली गयी हैं। इन पंक्तियों में लेखक धनवानों को यह बताना चाहता है कि इस युग में कंगाल ही भगवान है। वे भगवान को पाने के लिए तीर्थो में जाकर पंडों को धन का दान करते है, पर वह धन कंगालों या गरीबों को मिलना चाहिए, क्योंकि कंगाल ही धन के सही अधिकारी हैं। धनी लोग धन के घमंड में चूर है; वे गरीबों की दर्दभरी कहानी नहीं सुनते। उनकी आँखों पर घमंड का चश्मा चढ़ा है या उनपर चर्बी छायी है। जबतक वे इस चश्मे को उतार नहीं फेंकते, तबतक कलियुग के कल्कि-अवतार के दर्शन नहीं कर सकते। इस युग का भगवान कंगाल है, गरीब है। उसकी सेवा ही आज भगवान की सबसे बड़ी पूजा है।

यहाँ हम व्याख्या का तीसरा उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं।

(3) माला फेरत युग गया, गया मन का फेर। 
कर का मनका छाँड़िकै, मन का मनका फेर।।

व्याख्या :- प्रस्तुत 'दोहा' 'साहित्य-सरिता' नामक पुस्तक में संकलित 'कबीरदास की सखियाँ' से लिया गया है। महज अड़तालीस मात्राओं के इस छंद में महान् निर्गुणवादी संत कबीर ने एक गहरा अनुभव व्यक्त किया है। उनका कहना है कि माला फेरते-फेरते तो अनगिनत वर्ष बीते, किंतु मन का फेर गया अर्थात मन की मैल धुली, कपट मिटा। अतः यह आवश्यक है कि हाथ की सुमरिनी छोड़कर मन की सुमरिनी फेरनी ही आरंभ कर दें।

इस दोहे में कबीर ऐसे ढोंगियों को फटकारते हैं, जो दुनिया को ठगने के लिए एक ओर माला जपते हैं और दूसरी ओर फरेब का जाल बुनते हैं। उनके लिए माला मानो धोखे की टट्टी है, जिसकी आड़ में वे मनमाना शिकार खेलते हैं। किंतु सच्चे भक्त जानते हैं कि प्रभु उसी पर प्रसन्न होता है, जिसका हृदय निर्मल हो, निष्कपट हो, छल-छद्महीन हो। गोस्वामीजी ने भी लिखा है कि भगवान राम की वाणी है-

निर्मल जन सोई मोहि पावा। 
मोहि कपट छल-छिद्र भावा।।

प्रस्तुत दोहे में यमक अलंकार है। 'मन का' और 'मनका' एक ही स्वर-व्यंजन-समुदाय की आवृत्ति है, किंतु दोनों में भेद है। एक 'मन का' का अर्थ स्पष्ट है और दूसरे 'मनका' का अर्थ माला है, अनुभव की गहराई से निकली हुई कबीर की यह वाणी सहज रूप से अर्थवान तो है ही, अलंकृत भी हो गयी है।

 

 

 

 

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