वालि

वालि (संस्कृत) या बालि रामायण का एक पात्र है। वह सुग्रीव का बड़ा भाई था। वह किष्किन्धा का राजा था, इन्द्र का पुत्र बताया जाता है तथा बंदरों के रूप थे। राम रूपी विष्णु ने उसका वध किया। हालाँकि रामायण की पुस्तक किष्किन्धाकाण्ड के ६७ अध्यायों में से अध्याय ५ से लेकर २६ तक ही वालि का वर्णन किया गया है, फिर भी रामायण में वालि की एक मुख्य भूमिका रही है, विशेषकर उसके वध को लेकर।

जन्म

बालि और सुग्रीव के जन्म को लेकर एक रोचक प्रसंग मौजूद है। ऐसा कहा जाता है कि बालि इन्द्र और अरुण का पुत्र था। इन्द्र देवताओं के राजा थे और अरुण सूर्यनारायण के सारथी। ऐसी मान्यता है कि सूर्य रोज़ सात सफ़ेद घोड़ों के रथ में सुबह आते हैं जिसका संचालन अरुण करता है। एक बार की बात है कि किसी ॠषि ने सूर्य को यह शाप दे दिया कि वह पृथ्वी के ऊपर प्रकाशमान नहीं होंगे। क्योंकि सूर्यनारायण ने इसके पश्चात् रथ की सवारी बन्द कर दी अतः अरूण के पास कोई काम नहीं रहा। अरुण की पहले से ही स्वर्ग लोक में जाकर अप्सराओं का दिव्य नृत्य देखने की इच्छा रही थी। उसने इस अवसर का लाभ उठाकर एक युवती का वेष धारण किया और अप्सराओं का नृत्य देखने स्वर्ग लोक पहुँच गया। इन्द्र, जो कि इस नृत्य का आनन्द ले रहे थे, ने अरुण रूपी युवती को देखा और उसपर मोहित हो गये। दोनों ने समागम किया और कालांतर में अरुण ने एक बालक को जन्म दिया जिसके सुन्दर केश होने के कारण बालि नाम रखा गया अरुण ने ये बात सूर्यदेव से कही तो उन्होंने अरुणदेव को उनके उस अप्सरा रूप में आने को कहा अरुण अपने उस रूप में आ गए दोनों ने समागम किया और कालान्तर में अरुण देव ने एक और बालक को जन्म दिया जिसकी सुन्दर ग्रीवा होने के कारण सुग्रीव नाम रखा गया। अरुण देव ने अपने पुत्र महर्षि गौतम तथा उनकी पत्नी अहल्या को सौंप दिए और दोनों ने बालि और सुग्रीव का पालन पोषण किया।


विवाह

बालि का विवाह वानर वैद्यराज सुषेण की पुत्री तारा के साथ सम्पन्न हुआ था। एक कथा के अनुसार समुद्र मन्थन के दौरान चौदह मणियों में से एक अप्सराएँ थीं। उन्हीं अप्सराओं में से एक तारा थी। बालि और सुषेण दोनों मन्थन में देवतागण की मदद कर रहे थे। जब उन्होंने तारा को देखा तो दोनों में उसे पत्नी बनाने की होड़ लगी। वालि तारा के दाहिनी तरफ़ तथा सुषेण उसके बायीं तरफ़ खड़े हो गये। तब विष्णु ने फ़ैसला सुनाया कि विवाह के समय कन्या के दाहिनी तरफ़ उसका होने वाला पति तथा बायीं तरफ़ कन्यादान करने वाला पिता होता है। अतः बालि तारा का पति तथा सुषेण उसका पिता घोषित किये 

बालि का बल 

ऐसा कहा जाता है कि बालि को उसके पिता इन्द्र से एक स्वर्ण हार प्राप्त हुआ जिसको ब्रह्मा ने मंत्रयुक्त करके यह वरदान दिया था कि इसको पहनकर वह जब भी रणभूमि में अपने दुश्मन का सामना करेगा तो उसके दुश्मन की आधी शक्ति क्षीण हो जायेगी और वालि को प्राप्त हो जायेगी। इस कारण से वालि लगभग अजेय था। रामायण में ऐसा प्रसंग आता है कि एक बार जब वालि संध्यावन्दन के लिए जा रहा था तो आकाश से नारद मुनि जा रहे थे। वालि ने उनका अभिवादन किया तो नारद ने बताया कि वह लंका जा रहे हैं जहाँ लंकापति रावण ने देवराज इन्द्र को परास्त करने के उपलक्ष में भोज का आयोजन किया है। चंचल स्वभाव के नारद – जिन्हें सर्वज्ञान है – ने बालि से चुटकी लेने की कोशिश की और कहा कि अब तो पूरे ब्रह्माण्ड में केवल रावण का ही आधिपत्य है और सारे प्राणी, यहाँ तक कि देवतागण भी उसे ही शीश नवाते हैं। वालि ने कहा कि रावण ने अपने वरदान और अपनी सेना का इस्तेमाल उनको दबाने में किया है जो निर्बल हैं लेकिन मैं उनमें से नहीं हूँ और आप यह बात रावण को स्पष्ट कर दें। सर्वज्ञानी नारद ने यही बात रावण को जा कर बताई जिसे सुनकर रावण क्रोधित हो गया। उसने अपनी सेना तैयार करने के आदेश दे डाले। नारद ने उससे भी चुटकी लेते हुये कहा कि एक वानर के लिए यदि आप पूरी सेना लेकर जायेंगे तो आपके सम्मान के लिए यह उचित नहीं होगा। रावण तुरन्त मान गया और अपने पुष्पक विमान में बैठकर वालि के पास पहुँच गया। वालि उस समय संध्यावन्दन कर रहा था। वालि की स्वर्णमयी कांति देखकर रावण घबरा गया और वालि के पीछे से वार करने की चेष्टा की। वालि अपनी पूजा अर्चना में तल्लीन था लेकिन फिर भी उसने उसे अपनी पूँछ से पकड़कर और उसका सिर अपने बगल में दबाकर पूरे विश्व में घुमाया। उसने ऐसा इसलिए किया कि संपूर्ण विश्व के प्राणी रावण को इस असहाय अवस्था में देखें और उनके मन से उसका भय निकल जाये। इसके पश्चात् रावण ने अपनी पराजय स्वीकार की और वालि की ओर मैत्री का हाथ बढ़ाया जिसे वालि ने स्वीकार कर लिया।
माया नामक असुर स्त्री के दो पुत्र थे — मायावी तथा दुंदुभि। दुंदुभि महिष रूपी असुर था। पहाड़ से महान दुंदुभि को अपने बल पर इतना दंभ हो गया कि उसने सागर राज को द्वंद्व युद्ध के लिये ललकारा। हालाँकि सागर राज उसका दंभ वहीं ख़त्म कर सकते थे लेकिन उन्होंने कहा कि ऐसे वीर से वह द्वंद्व करने में असमर्थ हैं तथा दुंदुभि को गिरियों के राजा हिमवान के पास जाने को कहा। दुंदुभि हिमवान के पास गया तो हिमवान ने भी उससे युद्ध करने के लिए मना कर दिया तथा उससे इन्द्र के पुत्र वालि को ललकारने का सुझाव दिया जो कि किष्किन्धा का राजा था। दुंदुभि तब किष्किन्धा के द्वार में गया और वालि को द्वंद्व के लिए ललकारा। मदमस्त वालि ने पहले तो दंभी दुंदुभि को समझाने की कोशिश की परन्तु जब वह नहीं माना तो वालि द्वंद्व के लिए राज़ी हो गया और दुंदुभि को बड़ी सरलता से हराकर उसका वध कर दिया। इसके पश्चात् वालि ने दुंदुभि के निर्जीव शरीर को उछालकर एक ही झटके में एक योजन दूर फेंक दिया। शरीर से टपकती रक्त की बूंदें महर्षि मतंग के आश्रम में गिरीं जो कि ऋष्यमूक पर्वत में स्थित था। क्रोधित मतंग ने वालि को शाप दे डाला कि यदि वालि कभी भी उनके आश्रम के एक योजन के दायरे में आया तो वह मृत्यु को प्राप्त होगा।
रामायण के किष्किन्धा काण्ड में यह भी उल्लेख आता है के वालि प्रतिदिन सूर्य को जल चढ़ाने पूर्व तट से पश्चिम तट और उत्तर से दक्षिण तटों में जाता था। रास्ते में आई पहाड़ों की चोटियों को वह ऐसे ऊपर फेंकता था और पुनः पकड़ लेता था मानो वह कोई गेंद हों। इसके पश्चात् भी जब वह सूर्य वन्दना करके लौटता था तो उसे थकावट नहीं होती थी।

सुग्रीव से वैर

वालि के बारे में यह कहा जाता है कि यदि कोई उसे द्वंद्व के लिए ललकारे तो वह तुरन्त तैयार हो जाता था। दुंदुभि के बड़ा भाई मायावी की वालि से किसी स्त्री को लेकर बड़ी पुरानी शत्रुता थी। मायावी एक रात किष्किन्धा आया और वालि को द्वंद्व के लिए ललकारा। स्त्रियों तथा शुभचिन्तकों के मना करने के बावजूद वालि उस असुर के पीछे भागा। साथ में सुग्रीव भी उसके साथ था। भागते-भागते मायावी ज़मीन के नीचे बनी एक कन्दरा में घुस गया। वालि भी उसके पीछे-पीछे गया। जाने से पहले उसने सुग्रीव को यह आदेश दिया कि जब तक वह मायावी का वध कर लौटकर नहीं आता, तब तक सुग्रीव उस कन्दरा के मुहाने पर खड़ा होकर पहरा दे। एक वर्ष से अधिक अन्तराल के पश्चात कन्दरा के मुहाने से रक्त बहता हुआ बाहर आया। सुग्रीव ने असुर की चीत्कार तो सुनी परन्तु वालि की नहीं। यह समझकर कि उसका अग्रज रण में मारा गया, सुग्रीव ने उस कन्दरा के मुँह को एक शिला से बन्द कर दिया और वापस किष्किन्धा आ गया जहाँ उसने यह समाचार सबको सुनाया। मंत्रियों ने सलाह कर सुग्रीव का राज्याभिषेक कर दिया। कुछ समय पश्चात वालि प्रकट हुआ और अपने अनुज को राजा देख बहुत कुपित हुआ। सुग्रीव ने उसे समझाने का भरसक प्रयत्न किया परन्तु वालि ने उसकी एक न सुनी और सुग्रीव के राज्य तथा पत्नी रूमा को हड़पकर उसे देश-निकाला दे दिया। डर के कारण सुग्रीव ने ऋष्यमूक पर्वत में शरण ली जहाँ शाप के कारण वालि नहीं जा सकता था। यहीं सुग्रीव का मिलाप हनुमान के कारण राम से हुआ।

वालि वध 

राम के यह आश्वासन देने पर कि राम स्वयं वालि का वध करेंगे, सुग्रीव ने वालि को ललकारा। वालि ललकार सुनकर बाहर आया। दोनों में घमासान युद्ध हुआ, परंतु क्योंकि दोनो भाइयों की मुख तथा देह रचना समान थी, इसलिए राम ने असमंजस के कारण अपना बाण नहीं चलाया। अंततः वालि ने सुग्रीव को बुरी तरह परास्त करके दूर खदेड़ दिया। सुग्रीव निराश होकर फिर राम के पास आ गया। राम ने इस बार लक्ष्मण से सुग्रीव के गले में माला पहनाने को कहा जिससे वह द्वंद्व के दौरान सुग्रीव को पहचानने में ग़लती नहीं करेंगे और सुग्रीव से वालि को पुन: ललकारने को कहा। हताश सुग्रीव फिर से किष्किन्धा के द्वार की ओर वालि को ललकारने के लिए चल पड़ा। जब वालि ने दोबारा सुग्रीव की ललकार सुनी तो उसके क्रोध का ठिकाना न रहा। तारा को शायद इस बात का बोध हो गया था कि सुग्रीव को राम का संरक्षण हासिल है क्योंकि अकेले तो सुग्रीव वालि को दोबारा ललकारने की हिम्मत कदापि नहीं करता। अतः किसी अनहोनी के भय से तारा ने वालि को सावधान करने की चेष्टा की। उसने यहाँ तक कहा कि सुग्रीव को किष्किन्धा का युवराज घोषित कर वालि उसके साथ संधि कर ले। किन्तु वालि ने इस शक से कि तारा सुग्रीव का अनुचित पक्ष ले रही है, उसे दुत्कार दिया। किन्तु उसने तारा को यह आश्वासन दिया कि वह सुग्रीव का वध नहीं करेगा और सिर्फ़ उसे अच्छा सबक सिखायेगा।
दोनों भाइयों में फिर से द्वंद्व शुरु हुआ लेकिन इस बार राम को दोनों भाइयों को पहचानने में कोई ग़लती नहीं हुयी और उन्होंने वालि पर पेड़ की ओट से बाण चला दिया। बाण ने वालि के हृदय को बेध डाला और वह धाराशायी होकर ज़मीन पर गिर गया।


























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