वेद, प्राचीन भारत के पवित्र साहित्य हैं जो हिन्दुओं के प्राचीनतम और आधारभूत धर्मग्रन्थ भी हैं । वेद, विश्व के सबसे प्राचीन साहित्य भी हैं। भारतीय संस्कृति में वेद सनातन वर्णाश्रम धर्म के, मूल और सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं।
'वेद' शब्द संस्कृत भाषा के विद् ज्ञाने धातु से बना है। इस तरह वेद का शाब्दिक अर्थ 'ज्ञान' है। इसी धातु से 'विदित' (जाना हुआ), 'विद्या' (ज्ञान), 'विद्वान' (ज्ञानी) जैसे शब्द आए हैं।
आज 'चतुर्वेद' के रूप में ज्ञात इन ग्रंथों का विवरण इस प्रकार है -
- ऋग्वेद - सबसे प्राचीन तथा प्रथम वेद जिसमें मन्त्रों की संख्या 10527 है। ऐसा भी माना जाता है कि इस वेद में सभी मंत्रों के अक्षरों की संख्या 432000 है। इसका मूल विषय ज्ञान है। विभिन्न देवताओं का वर्णन है तथा ईश्वर की स्तुति आदि।
- यजुर्वेद - इसमें कार्य (क्रिया) व यज्ञ (समर्पण) की प्रक्रिया के लिये 1975 गद्यात्मक मन्त्र हैं।
- सामवेद - इस वेद का प्रमुख विषय उपासना है। संगीत में गाने के लिये 1875 संगीतमय मंत्र।
- अथर्ववेद - इसमें गुण, धर्म, आरोग्य, एवं यज्ञ के लिये 5977 कवितामयी मन्त्र हैं।
वैदिक वांगमय का वर्गीकरण
वैदिकौं का यह सर्वस्वग्रन्थ 'वेदत्रयी' के नाम से भी विदित है। पहले यह वेद ग्रन्थ एक ही था जिसका नाम यजुर्वेद था- एकैवासीद् यजुर्वेद चतुर्धाः व्यभजत् पुनः वही यजुर्वेद पुनः ऋक्-यजुस्-सामः के रूप मे प्रसिद्ध हुआ जिससे वह 'त्रयी' कहलाया। बाद में वेद को पढ़ना बहुत कठिन प्रतीत होने लगा, इसलिए उसी एक वेद के तीन या चार विभाग किए गए। तब उनको ऋग्यजुसामके रुप में वेदत्रयी अथवा बहुत समय बाद ऋग्यजुसामाथर्व के रूप में चतुर्वेद कहलाने लगे। मंत्रों का प्रकार और आशय यानि अर्थ के आधार पर वर्गीकरण किया गया। इसका आधार इस प्रकार है -
वेदत्रयी
वैदिक परम्परा दो प्रकार की है - ब्रह्म परम्परा और आदित्य परम्परा। दोनों परम्पराओं में वेदत्रयी परम्परा प्राचीन काल में प्रसिद्ध थी। विश्व में शब्द-प्रयोग की तीन शैलियाँ होती हैं: पद्य (कविता), गद्य और गान। वेदों के मंत्रों के 'पद्य, गद्य और गान' ऐसे तीन विभाग होते हैं -
- वेद का पद्य भाग - ऋग्वेद
- वेद का गद्य भाग - यजुर्वेद
- वेद का गायन भाग - सामवेद
पद्य में अक्षर-संख्या तथा पाद एवं विराम का निश्चित नियम होता है। अतः निश्चित अक्षर-संख्या तथा पाद एवं विराम वाले वेद-मन्त्रों की संज्ञा 'ऋक्' है। जिन मन्त्रों में छन्द के नियमानुसार अक्षर-संख्या तथा पाद एवं विराम ऋषिदृष्ट नहीं है, वे गद्यात्मक मन्त्र 'यजुः' कहलाते हैं और जितने मन्त्र गानात्मक हैं, वे मन्त्र ‘'साम'’ कहलाते हैं। इन तीन प्रकार की शब्द-प्रकाशन-शैलियों के आधार पर ही शास्त्र एवं लोक में वेद के लिये ‘त्रयी’ शब्द का भी प्रयोग किया जाता है। यजुर्वेद गद्यसंग्रह है, अत: इस यजुर्वेद में जो ऋग्वेद के छंदोबद्ध मंत्र हैं, उनको भी यजुर्वेद पढ़ने के समय गद्य जैसा ही पढ़ा जाता है।
चतुर्वेद
द्वापर युग की समाप्ति के पूर्व वेदों के उक्त चार विभाग अलग-अलग नहीं थे। उस समय तो ऋक्, यजुः और साम - इन तीन शब्द-शैलियों मे संग्रहात्मक एक विशिष्ट अध्ययनीय शब्द-राशि ही वेद कहलाती थी। बाद में जब अथर्व भी वेद के समकक्ष हो गया, तब ये 'त्रयी' के स्थान पर 'चतुर्वेद' कहलाने लगे । गुरु के रुष्ट होने पर जिन्होने सभी वेदों को आदित्य से प्राप्त किया है उन याज्ञवल्क्य ने अपनी स्मृति मे वेदत्रयी के बाद और पुराणों के आगे अथर्व को सम्मिलित कर बोला वेदाsथर्वपुराणानि इति।
वर्तमान काल में वेद चार हैं- लेकिन पहले ये एक ही थे। वर्तमान काल में वेद चार माने जाते हैं। परंतु इन चारों को मिलाकर एक ही 'वेद ग्रंथ' समझा जाता था।
- एकैवासीत्यजुर्वेदस्तंचतुर्धाःव्यवर्तयत् - गरुड पुराण
लक्षणतः त्रयी होते हुये भी वेद एक ही था, फिर उसको चार भागों में बाँटा गया।
- एक एव पुरा वेद: प्रणव: सर्ववाङ्मय - महाभारत
अन्य नाम
वेदों को सुनने से फैलने और पीढ़ी-दर-पीढ़ी याद रखने के कारण व सृष्टिकर्ता ब्रहमाजी द्वारा भी अपौरुषेय वाणी के रुप में प्राप्त करने के कारण श्रुति, स्वतः प्रमाण के कारण आम्नाय, पुरुष (जीव) भिन्न ईश्वरकृत होने से अपौरुषेय इत्यादि नाम भी दिये जाते हैं।
वेद के पठन-पाठन के क्रम में गुरुमुख से श्रवण एवं याद करने का वेद के संरक्षण एवं सफलता की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व है। इसी कारण वेद को ‘'श्रुति'’ भी कहते हैं। वेद परिश्रमपूर्वक अभ्यास द्वारा संरक्षणीय है, इस कारण इसका नाम ‘'आम्नाय’' भी है। वेदों की रक्षार्थ महर्षियों ने अष्ट विकृतियों की रचना की है -जटा माला शिखा रेखा ध्वजो दण्डो रथो घनः | अष्टौ विकृतयः प्रोक्तो क्रमपूर्वा महर्षयः || जिसके फलस्वरुप प्राचीन काल की तरह आज भी ह्रस्व, दीर्घ, प्लूत और उदात्त, अनुदात्त स्वरित आदि के अनुरुप मन्त्रोच्चारण होता है।
साहित्यिक दृष्टि से
इसके अनुसार प्रत्येक शाखा की वैदिक शब्द-राशि का वर्गीकरण- उपर वर्णित प्रत्येक वेद के चार भाग होते हैं। पहले भाग मन्त्रभाग (संहिता) के अलावा अन्य तीन भाग को वेद न मानने वाले भी हैं लेकिन ऐसा विचार तर्कपूर्ण सिद्ध होते नहीं देखा गया हैं। अनादि वैदिक परम्परा में मन्त्र, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद एक ही वेद के चार अवयव है। कुल मिलाकर वेद के भाग ये हैं :-
साहित्यिक दृष्टि से
इसके अनुसार प्रत्येक शाखा की वैदिक शब्द-राशि का वर्गीकरण- उपर वर्णित प्रत्येक वेद के चार भाग होते हैं। पहले भाग मन्त्रभाग (संहिता) के अलावा अन्य तीन भाग को वेद न मानने वाले भी हैं लेकिन ऐसा विचार तर्कपूर्ण सिद्ध होते नहीं देखा गया हैं। अनादि वैदिक परम्परा में मन्त्र, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद एक ही वेद के चार अवयव है। कुल मिलाकर वेद के भाग ये हैं :-
- संहिता मन्त्रभाग- यज्ञानुष्ठान मे प्रयुक्त व विनियुक्त भाग।
- ब्राह्मण-ग्रन्थ - यज्ञानुष्ठान में प्रयोगपरक मन्त्र का व्याख्यायुक्त गद्यभाग में कर्मकाण्ड की विवेचना।
- आरण्यक - यज्ञानुष्ठान के आध्यात्मपरक विवेचनायुक्त भाग अर्थ के पीछे के उद्देश्य की विवेचना।
- उपनिषद - ब्रह्म माया व परमेश्वर, अविद्या जीवात्मा और जगत के स्वभाव और सम्बन्ध का बहुत ही दार्शनिक और ज्ञानपूर्वक वर्णन वाला भाग। जैसा की कृष्णयजुर्वेद में मन्त्रखण्ड में ही ब्राह्मण है। शुक्लयजुर्वेद मन्त्रभाग में ही ईशावास्योपनिषद है।
उपर के चारों खंड वेद होने पर भी कुछ लोग केवल 'संहिता' को ही वेद मानते हैं।
वर्गीकरण का इतिहास
द्वापरयुग की समाप्ति के समय श्रीकृष्णद्वैपायन वेदव्यास जी ने यज्ञानुष्ठान के उपयोग को दृष्टिगत रखकर उस एक वेद के चार विभाग कर दिये और इन चारों विभागों की शिक्षा चार शिष्यों को दी। ये ही चार विभाग ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद के नाम से प्रसिद्ध है। पिप्लाद, वैशम्पायन, जैमिनि और सुमन्तु नामक -चार शिष्यों को क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद की शिक्षा दी। इन चार शिष्यों ने शाकल आदि अपने भिन्न-भिन्न शिष्यों को पढ़ाया। इन शिष्यों के द्वारा अपने-अपने अधीन वेदों के प्रचार व संरक्षण के कारण वे वैदिक ग्रन्थ, चरण, शाखा, प्रतिशाखा और अनुशाखा के माध्यम से अनेक रूपों में विस्तारित हो गये व उन्हीं प्रचारक ऋषियों के नाम से प्रसिद्ध हैं। लेकिन अनेक विद्वानों का मानना है कि वेद आरंभ से ही चार हैं।
शाखा
पूर्वोक्त चार शिष्यों ने शुरु में जितने शिष्यों को अनुश्रवण कराया वे चरण समूह कहलाये। प्रत्येक चरण समूह में बहुत सी शाखाएं होती हैं और इसी तरह प्रतिशाखा, अनुशाखा आदि बन गए। वेद की अनेक शाखाएं यानि व्याख्यान का तरीका बतायी गयी हैं। ऋषि पतंजलि के महाभाष्य के अनुसार ऋग्वेद की 21, यजुर्वेद की 101, सामवेद की 1001, अर्थववेद की 9 अतः इस प्रकार 1131 शाखाएं हैं परन्तु आज 12 शाखाओं के ही मूल ग्रन्थ उपलब्ध हैं। वेद की प्रत्येक शाखा की वैदिक शब्दराशि चार भागों में उपलब्ध है: 1. संहिता 2. ब्राह्मण 3. आरण्यक 4. उपनिषद्। कुछ लोग इनमें संहिता को ही वेद मानते हैं। शेष तीन भाग को वेदों के व्याख्या ग्रन्थ मानते हैं। अलग अलग शाखाओं में मूल संहिता तो वही रहती है लेकिन आरण्यक और ब्राह्मण ग्रंथों में अन्तर आ जाता है। कई मंत्र भागों में भी उपनिषद मिलता है जैसा कि शुक्लयजुर्वेद मन्त्रभाग में इशावास्योपनिषद। पुराने समय में जितनी शाखाएं थी उतने ही मन्त्र, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद होते थे। इतनी शाखायें होने के बाबजूद भी आजकल कुल ९ शाखाओं के ही ग्रंथ मिलते हैं। अन्य शाखाओं में किसी के मन्त्र, किसी के ब्राह्मण, किसी के आरण्यक तो किसी के उपनिषद ही पाया जाता है। इतना ही नही, कई शाखाओं के तो केवल उपनिषद ही पाए जाते हैं, तभी तो उपनिषद अधिक मिलते हैं।
वेदों के विषय
वैदिक ऋषियौ ने वेदों को जनकल्याणमे प्रवृत्त पाया। निस्संदेह जैसा कि -:यथेमां वाचं कल्याणिमावदानि जनेभ्यः वैसा ही वेदा हि यज्ञार्थमभिप्रवृत्ता कालानुपूर्व्याभिहिताश्च यज्ञाः तस्मादिदं कालविधानशास्त्रं यो ज्योतिषं वेद स वेद यज्ञम् वेदौं की प्रवृत्तिः जनकल्यण के कार्य मे है। वेद शब्द विद् धातु में घं प्रत्यय लगने से बना है। संस्कृत ग्रथों में विद् ज्ञाने और विद् लाभे जैसे विशेषणों से विद् धातु से ज्ञान और लाभ के अर्थ का बोध होता है।
वेदों के विषय उनकी व्याख्या पर निर्भर करते हैं - अग्नि, यज्ञ, सूर्य, इंद्र (आत्मा तथा बिजली के अर्थ में), सोम, ब्रह्म, मन-आत्मा, जगत्-उत्पत्ति, पदार्थों के गुण, धर्म (उचित-अनुचित), दाम्पत्य, ध्यान-योग, प्राण (श्वास की शक्ति) जैसे विषय इसमें बारंबार आते हैं। यज्ञ में देवता, द्रव्य, उद्देश्य,और विधि आदि विनियुक्त होते हैं। ग्रंथों के हिसाब से इनका विवरण इस प्रकार है -
ऋग्वेद
ऋग्वेद को चारों वेदों में सबसे प्राचीन माना जाता है। इसको दो प्रकार से बाँटा गया है। प्रथम प्रकार में इसे 10 मण्डलों में विभाजित किया गया है। मण्डलों को सूक्तों में, सूक्त में कुछ ऋचाएं होती हैं। कुल ऋचाएं 10627 हैं। दूसरे प्रकार से ऋग्वेद में 64 अध्याय हैं। आठ-आठ अध्यायों को मिलाकर एक अष्टक बनाया गया है। ऐसे कुल आठ अष्टक हैं। फिर प्रत्येक अध्याय को वर्गों में विभाजित किया गया है। वर्गों की संख्या भिन्न-भिन्न अध्यायों में भिन्न भिन्न ही है। कुल वर्ग संख्या 2024 है। प्रत्येक वर्ग में कुछ मंत्र होते हैं। सृष्टि के अनेक रहस्यों का इनमें उद्घाटन किया गया है। पहले इसकी 21 शाखाएं थीं परन्तु वर्तमान में इसकी शाकल शाखा का ही प्रचार है।
यजुर्वेद
इसमें गद्य और पद्य दोनों ही हैं। इसमें यज्ञ कर्म की प्रधानता है। प्राचीन काल में इसकी 101 शाखाएं थीं परन्तु वर्तमान में केवल पांच शाखाएं हैं - काठक, कपिष्ठल, मैत्रायणी, तैत्तिरीय, वाजसनेयी। इस वेद के दो भेद हैं - कृष्ण यजुर्वेद और शुक्ल यजुर्वेद। कृष्ण यजुर्वेद का संकलन महर्षि वेद व्यास ने किया है। इसका दूसरा नाम तैत्तिरीय संहिता भी है। इसमें मंत्र और ब्राह्मण भाग मिश्रित हैं। शुक्ल यजुर्वेद - इसे सूर्य ने याज्ञवल्क्य को उपदेश के रूप में दिया था। इसमें 15 शाखाएं थीं परन्तु वर्तमान में माध्यन्दिन को जिसे वाजसनेयी भी कहते हैं प्राप्त हैं। इसमें 40 अध्याय, 303 अनुवाक एवं 1975 मंत्र हैं। अन्तिम चालीसवां अध्याय ईशावास्योपनिषद है।
सामवेद
यह गेय ग्रन्थ है। इसमें गान विद्या का भण्डार है, यह भारतीय संगीत का मूल है। ऋचाओं के गायन को ही साम कहते हैं। इसकी 1001 शाखाएं थीं। परन्तु आजकल तीन ही प्रचलित हैं - कोथुमीय, जैमिनीय और राणायनीय। इसको पूर्वार्चिक और उत्तरार्चिक में बांटा गया है। पूर्वार्चिक में चार काण्ड हैं - आग्नेय काण्ड, ऐन्द्र काण्ड, पवमान काण्ड और आरण्य काण्ड। चारों काण्डों में कुल 640 मंत्र हैं। फिर महानाम्न्यार्चिक के 10 मंत्र हैं। इस प्रकार पूर्वार्चिक में कुल 650 मंत्र हैं। छः प्रपाठक हैं। उत्तरार्चिक को 21 अध्यायों में बांटा गया। नौ प्रपाठक हैं। इसमें कुल 1225 मंत्र हैं। इस प्रकार सामवेद में कुल 1875 मंत्र हैं। इसमें अधिकतर मंत्र ऋग्वेद से लिए गए हैं। इसे उपासना का प्रवर्तक भी कहा जा सकता है।
अथर्ववेद
इसमें गणित, विज्ञान, आयुर्वेद, समाज शास्त्र, कृषि विज्ञान, आदि अनेक विषय वर्णित हैं। कुछ लोग इसमें मंत्र-तंत्र भी खोजते हैं। यह वेद जहां ब्रह्म ज्ञान का उपदेश करता है, वहीं मोक्ष का उपाय भी बताता है। इसे ब्रह्म वेद भी कहते हैं। इसमें मुख्य रूप में अथर्वण और आंगिरस ऋषियों के मंत्र होने के कारण अथर्व आंगिरस भी कहते हैं। यह 20 काण्डों में विभक्त है। प्रत्येक काण्ड में कई-कई सूत्र हैं और सूत्रों में मंत्र हैं। इस वेद में कुल 5977 मंत्र हैं। इसकी आजकल दो शाखाएं शौणिक एवं पिप्पलाद ही उपलब्ध हैं। अथर्ववेद का विद्वान् चारों वेदों का ज्ञाता होता है। यज्ञ में ऋग्वेद का होता देवों का आह्नान करता है, सामवेद का उद्गाता सामगान करता है, यजुर्वेद का अध्वर्यु देव:कोटीकर्म का वितान करता है तथा अथर्ववेद का ब्रह्म पूरे यज्ञ कर्म पर नियंत्रण रखता है।
उपवेद, उपांग
प्रतिपदसूत्र, अनुपद, छन्दोभाषा (प्रातिशाख्य), धर्मशास्त्र, न्याय तथा वैशेषिक- ये ६ दर्शऩ उपांग ग्रन्थ भी उपलब्ध है।
आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद तथा स्थापत्यवेद- ये क्रमशः चारों वेदों के उपवेद कात्यायन ने बतलाये हैं।
- स्थापत्यवेद - स्थापत्यकला के विषय, जिसे वास्तु शास्त्र या वास्तुकला भी कहा जाता है, इसके अन्तर्गत आता है।
- धनुर्वेद - युद्ध कला का विवरण। इसके ग्रंथ विलुप्त प्राय हैं।
- गन्धर्वेद - गायन कला।
- आयुर्वेद - वैदिक ज्ञान पर आधारित स्वास्थ्य विज्ञान।
वेद के अंग
वेदों के सर्वांगीण अनुशीलन के लिये शिक्षा (वेदांग), निरुक्त, व्याकरण, छन्द, और कल्प (वेदांग), ज्योतिष के ग्रन्थ हैं जिन्हें ६ अंग कहते हैं। अंग के विषय इस प्रकार हैं -
- शिक्षा - ध्वनियों का उच्चारण।
- निरुक्त - शब्दों का मूल भाव। इनसे वस्तुओं का ऐसा नाम किस लिये आया इसका विवरण है। शब्द-मूल, शब्दावली, और शब्द निरुक्त के विषय हैं।
- व्याकरण - संधि, समास, उपमा, विभक्ति आदि का विवरण। वाक्य निर्माण को समझने के लिए आवश्यक।
- छन्द - गायन या मंत्रोच्चारण के लिए आघात और लय के लिए निर्देश।
५.कल्प - यज्ञ के लिए विधिसूत्र। इसके अन्तर्गत श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र, धर्मसूत्र और शुल्बसूत्र |वेदोक्त कार्य सम्पन्न करना और समर्पण करनेमे इनका महत्व है। ६.ज्योतिष - समय का ज्ञान और उपयोगिता| आकाशीय पिंडों (सूर्य, पृथ्वी, नक्षत्रों) की गति और स्थिति से । इसमें वेदांगज्योतिष नामक ग्रन्थ प्रत्येक वेदके अलग अलग थे | अब लगधमुनि प्रोक्त चारों वेदों के वेदांगज्योतिषों मे दो ग्रन्थ ही पाए जारे हैं -एक आर्च पाठ और दुसरा याजुस् पाठ | इस ग्रन्थमे सोमाकर नामक विद्वानके प्राचीन भाष्य मीलता है साथ ही कौण्डिन्न्यायन संस्कृत व्याख्या भी मीलता है।
वैदिक छंद
वैदिक मंत्रों में प्रयुक्त छंद कई प्रकार के हैं जिनमें मुख्य हैं
- गायत्री - सबसे प्रसिद्ध छंद।आठ वर्णों (मात्राओं) के तीन पाद। गीता में भी इसको सर्वोत्तम बताया गया है (ग्यारहवें अध्याय में)। इसी में प्रसिद्ध गायत्री मंत्र ढला है।
- त्रिष्टुप - ११ वर्णों के चार पाद - कुल ४४ वर्ण।
- अनुष्टुप - ८ वर्णों के चार पाद, कुल ३२ वर्ण। वाल्मीकि रामायण तथा गीता जैसे ग्रंथों में भई इस्तेमाल हुआ है। इसी को श्लोक भी कहते हैं।
- जगती - ८ वर्णों के ६ पाद, कुल ४८ वर्ण।
- बृहती- ८ वर्णों के ४ पाद कुल ३२ वर्ण
- पंक्ति- ४ या ५ पाद कुल ४० अक्षर २ पाद के बाद विराम होता है पादों में अक्षरों की संख्याभेद से इसके कई भेद हैं
- उष्णिक- इसमें कुल २८ वर्ण होते हैं तथा कुल ३ पाद होते हैं २ में आठ आठ वर्ण तथा तीसरे में १२ वर्ण होते हैं दो पद के बाद विराम होता है बढे हुए अक्षरों के कारण इसके कई भेद होते हैं
वेद की शाखाएँ
इसके अनुसार वेदोक्त यज्ञों का अनुष्ठान ही वेद के शब्दों का मुख्य उपयोग माना गया है। सृष्टि के आरम्भ से ही यज्ञ करने में साधारणतया मन्त्रोच्चारण की शैली, मन्त्राक्षर एवं कर्म-विधि में विविधता रही है। इस विविधता के कारण ही वेदों की शाखाओं का विस्तार हुआ है। यथा-ऋग्वेद की २१ शाखा, यजुर्वेद की १०१ शाखा, सामवेद की १००० शाखा और अथर्ववेद की ९ शाखा- इस प्रकार कुल १,१३१ शाखाएँ हैं। इस संख्या का उल्लेख महर्षि पतंजलि ने अपने महाभाष्य में भी किया है। उपर्युक्त १,१३१ शाखाओं में से वर्तमान में केवल १२ शाखाएँ ही मूल ग्रन्थों में उपलब्ध हैः-
- ऋग्वेद की २१ शाखाओं में से केवल २ शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त हैं- शाकल-शाखा और शांखायन शाखा।
- यजुर्वेद में कृष्णयजुर्वेद की ८६ शाखाओं में से केवल ४ शाखाओं के ग्रन्थ ही प्राप्त है- तैत्तिरीय-शाखा, मैत्रायणीय शाखा, कठ-शाखा और कपिष्ठल-शाखा
- शुक्लयजुर्वेद की १५ शाखाओं में से केवल २ शाखाओं के ग्रन्थ ही प्राप्त है- माध्यन्दिनीय-शाखा और काण्व-शाखा।
- सामवेद की १,००० शाखाओं में से केवल २ शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त है- कौथुम-शाखा और जैमिनीय-शाखा।
- अथर्ववेद की ९ शाखाओं में से केवल २ शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त हैं- शौनक-शाखा और पैप्पलाद-शाखा।
उपर्युक्त १२ शाखाओं में से केवल ६ शाखाओं की अध्ययन-शैली प्राप्त है-शाकल, तैत्तरीय, माध्यन्दिनी, काण्व, कौथुम तथा शौनक शाखा। यह कहना भी अनुपयुक्त नहीं होगा कि अन्य शाखाओं के कुछ और भी ग्रन्थ उपलब्ध हैं, किन्तु उनसे शाखा का पूरा परिचय नहीं मिल सकता एवं बहुत-सी शाखाओं के तो नाम भी उपलब्ध नहीं हैं।
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