शुक्राचार्य

असुराचार्य, भृगु ऋषि तथा दिव्या के पुत्र जो शुक्राचार्य के नाम से अधिक विख्यात हैं। इनका जन्म का नाम 'शुक्र उशनस' है। पुराणों के अनुसार यह असुरों ( दैत्य , दानव और राक्षस ) के गुरु तथा पुरोहित थे।


कहते हैं, भगवान के वामनावतार में तीन पग भूमि प्राप्त करने के समय, यह राजा बलि की झारी (सुराही) के मुख में जाकर बैठ गए थे और वामनावतार द्वारा दर्भाग्र (कुशा) से सुराही को साफ करने की क्रिया में इनकी एक आँख फूट गई थी। इसीलिए यह "एकाक्ष" भी कहे जाते थे। आरंभ में इन्होंने अंगिरस ऋषि का शिष्यत्व ग्रहण किया किंतु जब वह अपने पुत्र के प्रति पक्षपात दिखाने लगे तब इन्होंने शंकर की आराधना कर भगवान शंकर से मृतसंजीवनी विद्या प्राप्त की जिसके प्रयोग से उन्हें युद्ध में मृत्यु होने पर मृत योद्धा को पुनः जीवित करने की शक्ति प्राप्त थी। इसी कारण देवासुर संग्राम में असुर अनेक बार जीते। इन्होंने एक हजार अध्यायों वाले "बार्हस्पत्य शास्त्र" की रचना की। 'गो' और 'जयन्ती' नाम की इनकी दो पत्नियाँ थीं। असुरों के आचार्य होने के कारण ही इन्हें 'असुराचार्य' या शुक्राचार्य कहते हैं।

एक पौराणिक कथा के अनुसार महर्षि शुक्राचार्य ने भगवान शिव की घोर तपस्या की थी और उनसे मृतसंजीवनी मंत्र प्राप्त किया था, जिस मंत्र का प्रयोग उन्होंने देवासुर संग्राम में देवताओं के विरुद्ध किया था जब असुर देवताओं द्वारा मारे जाते थे, तब शुक्राचार्य उन्हें मृतसंजीवनी विद्या का प्रयोग करके जीवित कर देते थे। यह विद्या अति गोपनीय ओर कष्टप्रद साधनाओं से सिद्ध होती है।उनकी असली समाधी बेट कोपरगाव में है। और उसे देखने के लिये लोग आते है।

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