राम और शबरी


पौराणिक कथा के अनुसार माता शबरी माता का असली नाम श्रमणा था. ये भील सामुदाय के शबर जाति से संबंध रखती थीं। इसी कारण कालांतर में उनका नाम शबरी हुआ. शबरी के पिता भीलों के मुखिया थे. उन्होंने शबरी का विवाह भील कुमार से तय कर दिया. शादी से पहले  कई भेड़-बकरियों को बलि के लिए लाया गया, जिन्हें देखकर शबरी का मन विचलित हो उठा, क्योंकि उन्हें बेजुबान जानवरों से बेहद लगाव था. निर्दोष जानवरी की हत्या को रोकने के लिए शबरी विवाह से एक दिन पूर्व घर से भागकर जंगल चली गईं और सभी जानवरों को बचा लिया।

शबरी घर से भागकर दंडकारण्य वन में पहुंची और वहां मातंग ऋषि की सेवा करने लगी. भील जाती की होने के कारण शबरी आश्रम में छिपकर सेवा करती थी.  एक दिन शबरी की  सेवा भावना देखकर मुनिवर अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने अपने आश्रम में शबरी को शरण दे दी. उन्होंने मातंग ऋषि से ही धर्म और शासत्र का ज्ञान प्राप्त किया. मातंग ऋषि ने ही शबरी को श्रीराम की भक्ति करने को कहा।

एक दिन जब ऋषि मातंग को लगा कि उनका अंत समय निकट है तो उन्होंने शबरी से कहा कि वे अपने आश्रम में ही प्रभु श्री राम की प्रतीक्षा करें। वे एक दिन अवश्य ही उनसे मिलने आएंगे और उसके बाद ही तुम्हें मोक्ष प्राप्त होगा. शबरी प्रतिदिन अपनी कुटिया के रास्ते में आने वाले पत्थरों और कांटों को हटाने लगीं, ताकि श्रीराम के आगमन के लिए मार्ग सुलभ हो जाए. रोज ताजे फल और बेर तोड़कर श्रीराम के लिए रखती।


प्रतिदिन की तरह नये नये फूलों से सजाया द्वार व उसपर आ रहे कमल सदृश नेत्र और विशाल भुजाओं वाले, सिर पर जटाओं का मुकुट और हृदय पर वनमाला धारण किए हुए सुंदर, साँवले और गोरे दोनों भाइयों श्रीराम-लक्ष्मण के चरणों में शबरीजी लिपट पड़ीं। मानों अंधे को अपनी दोनों नेत्र यकायक मिल गये। वे प्रेम में मग्न हो गईं, मुख से वचन नहीं निकलता। बार-बार चरण-कमलों में सिर नवा रही हैं। फिर उन्होंने जल लेकर आदरपूर्वक दोनों भाइयों के चरण धोए और फिर उन्हें सुंदर आसनों पर बैठाया। यह दृश्य हर किसी के लिए सुखदायक है। सरल हृदय मानव अपने आंसू रोक नहीं सकता।

एक टक देर तक उस सुपुरुष को निहारते रहने के बाद बुजुर्ग भीलनी के मुंह से स्वर/बोल फूटे :-

“कहो राम, शबरी की डीह ढूंढ़ने में अधिक कष्ट तो नहीं हुआ ?”

राम मुस्कुराए :-  “यहां तो आना ही था मां, कष्ट का क्या मोल/मूल्य ?”

“जानते हो राम, तुम्हारी प्रतीक्षा तब से कर रही हूँ, जब तुम जन्में भी नहीं थे, यह भी नहीं जानती थी, कि तुम कौन हो? कैसे दिखते हो? क्यों आओगे मेरे पास? बस इतना ज्ञात था, कि कोई पुरुषोत्तम आएगा जो मेरी प्रतीक्षा का अंत करेगा|”

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राम ने कहा :-

“तभी तो मेरे जन्म के पूर्व ही तय हो चुका था, कि राम को शबरी के आश्रम में जाना है”

शबरी ने कहा :”एक बात बताऊँ प्रभु,

भक्ति के दो भाव होते हैं, पहला ‘मर्कट भाव’   और दूसरा  ‘मार्जार भाव’

”बन्दर का बच्चा अपनी पूरी शक्ति लगाकर अपनी माँ का पेट पकड़े रहता है, ताकि गिरे न, उसे सबसे अधिक भरोसा माँ पर ही होता है,  और वह उसे पूरी शक्ति से पकड़े रहता है. यही भक्ति का भी एक भाव है, जिसमें भक्त अपने ईश्वर को पूरी शक्ति से पकड़े रहता है, दिन रात उसकी आराधना करता है…” (मर्कट भाव)

पर मैंने यह भाव नहीं अपनाया, ”मैं तो उस बिल्ली के बच्चे की भाँति थी, जो अपनी माँ को पकड़ता ही नहीं, बल्कि निश्चिन्त बैठा रहता है कि माँ है न, वह स्वयं ही मेरी रक्षा करेगी और माँ सचमुच उसे अपने मुँह में टांग कर घूमती है. मैं भी निश्चिन्त थी कि तुम आओगे ही, तुम्हें क्या पकड़ना…” (मार्जार भाव)

और

“राम आया है, ताकि “युगों को बता सके कि रावणों से युद्ध केवल राम की शक्ति से नहीं बल्कि वन में बैठी शबरी के आशीर्वाद से जीते जाते हैं”

शबरी की आँखों में जल भर आया था.

उसने बात बदलकर कहा :-  “बेर खाओगे राम ?”

राम मुस्कुराए, “बिना खाये जाऊंगा भी नहीं मां”

शबरी अपनी कुटिया से झपोली में बेर ले कर आई और राम के समक्ष रख दिया।

शबरी ने श्रीराम को स्वयं चखकर सिर्फ मीठे बेर खिलाये, जिसे भगवान राम ने भी भक्ति के वश होकर प्रेम से खाए

कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि।
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि।।

प्रभु राम इन फलों को बहुत ही प्रेमसहित व मन से ग्रहण करते हैं। मानों उन्होंने शबरी के झूठे बेर के लिए ही वनवास बड़े प्रेम से स्वीकारा हो ! वहीं लक्ष्मण जी यह सब देखकर विस्मित है ! मन ही मन कह रहे है प्रभु की अब यह कौन-सी लीला है ? लक्ष्मण जी इस लीला का आनंद भी ले रहे है।

राम और लक्ष्मण खाने लगे तो कहा :-

“बेर मीठे हैं न प्रभु?”

“यहाँ आ कर मीठे और खट्टे का भेद भूल गया हूँ मां. बस इतना समझ रहा हूँ, कि यही अमृत है”

शबरी मुस्कुराईं, बोलीं :- ”सचमुच तुम मर्यादा पुरुषोत्तम हो, राम”


फिर शबरी अपने प्रभु को देखकर प्रेम से भर गई। उन्हें कुछ सुधबुध ही नहीं है कि अब आगे क्या कहें ? कैसे स्वयं परमात्मा से कुछ कहें ? शबरी अपने को नीच जाति व अत्यंत मूढ़बुद्धि मानने लगी। उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि प्रभु सामने बैठे है और उनकी स्तुति कैसे करें ? जबकि शबरी सिद्ध तपस्विनी थी।

जैसे कि प्रभु हर बार अपने भक्त को परेशानी में देखकर उनके मन का समाधान करते है उसी तरह श्रीराम ने शबरी के मन को शांत करते हुए कहा कि हे भामिनि ! “मानउँ एक भगति कर नाता” (मैं तो केवल एक भक्ति ही का संबंध मानता हूँ।) मुझे अपने सभी भक्त प्यारे है। मैं किसी भी तरह की ऊंच-नीच को नहीं मानता। प्रभु श्रीराम के लिए अपना भक्त परमप्रिय है।

शबरी को प्रभु श्रीराम कहते है, मैं तुझसे अब अपनी नवधा भक्ति रस कहता हूँ। एक ही भक्ति के नौ रसों का रहस्य बताता हूँ। तू सावधान होकर सुन और मन में इसे धारण कर;-

प्रथम भगति संतन्ह कर संगा- पहली भक्ति है संतों की सत्संग। सत्य का साथ। मानव जीवन के कल्याण के लिए सतत ईश्वर का सान्निध्य ही एकमेव उपाय है। सत्यम शिवम सुन्दरम भाव।

दूसरी रति मम कथा प्रसंगा- दूसरी भक्ति है मेरे कथा -प्रसंग में प्रेम । प्रभु से प्रेम करना। प्रभु भाव में रत रहना। भगवन के भजन कीर्तन में आनंदमय रहना।

तीसरी भक्ति है अभिमान रहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा करना। छोटे-बड़े के भेद भाव से परे जाकर भक्ति भाव में रहना।

चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर प्रभु के गुण समूहों का गान करना। कैसी भी चलाकी-चतुराई से बचना।

मेरे (राम) मंत्र का जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास- यह पाँचवी भक्ति है। जो वेदों में प्रसिद्ध हैं। राम नाम ही सत्य है। प्रभु के नाम राम में रमे रहना।

छठी भक्ति – इन्द्रियों का निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म(आचरण) में लगे रहना। सदा सत्य के साथ रहना।

सातवीं भक्ति है जगत् भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत(राममय) देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके मानना। प्रभु की भक्ति करने वालों को अधिक मानना।

आठवीं भक्ति- जथालाभ संतोषा (जो कुछ मिल जाय उसी में संतोष करना) और स्वप्न में भी पराये दोषों को न देखना।

नवी भक्ति- सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य(विषाद) का न होना। समभाव में रहना। भक्त का भगवान के प्रति अटूट आस्थावान होना।

यह नवधा भक्ति रस बरसाने के बाद प्रभु श्रीराम शबरी से कहते है कि इन नवों में से जिनके पास एक भी होती है, वह स्त्री-पुरूष, जड़-चेतन कोई भी हो- मुझे वह अत्यंत प्रिय है। ओर फिर प्रभु श्रीराम शबरी को प्रेममय होकर कहते है, हे भामिनि ! फिर तुझमें तो सभी प्रकार की भक्ति दृढ़ है। अतएव जो गति योगियों को भी दुर्लभ है, वही आज तेरे लिये सुलभ हो गयी है। प्रभु के दर्शन का परम अनुपम फल यह है कि जीव अपने सहज स्वरूप को प्राप्त हो जाता है

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