पूर्व जन्म में वसु थे भीष्म
महाभारत के आदि पर्व के अनुसार एक बार पृथु आदि वसु अपनी पत्नियों के साथ मेरु पर्वत पर भ्रमण कर रहे थे। वहां वसिष्ठ ऋषि का आश्रम भी था। एक वसु पत्नी की दृष्टि ऋषि वसिष्ठ के आश्रम में बंधी नंदिनी नामक गाय पर पड़ गई। उसने उसे अपने पति द्यौ नामक वसु को दिखाया तथा कहा कि वह यह गाय अपनी सखियों के लिए चाहती है।
पत्नी की बात मानकर द्यौ ने अपने भाइयों के साथ उस गाय का हरण कर लिया। जब महर्षि वसिष्ठ अपने आश्रम आए तो उन्होंने दिव्य दृष्टि से सारी बात जान ली। वसुओं के इस कार्य से क्रोधित होकर ऋषि ने उन्हें मनुष्य योनि में जन्म लेने का श्राप दे दिया। जब सभी वसु ऋषि वसिष्ठ से क्षमा मांगने आए।
तब ऋषि ने कहा कि तुम सभी वसुओं को तो शीघ्र ही मनुष्य योनि से मुक्ति मिल जाएगी, लेकिन इस द्यौ नामक वसु को अपने कर्म भोगने के लिए बहुत दिनों तक पृथ्वीलोक में रहना पड़ेगा। महाभारत के अनुसार द्यौ नामक वसु ने गंगापुत्र भीष्म के रूप में जन्म लिया था। श्राप के प्रभाव से वे लंबे समय तक पृथ्वी पर रहे तथा अंत में इच्छामृत्यु से प्राण त्यागे।
भीष्म पितामह के पिता का नाम राजा शांतनु था। एक बार शांतनु शिकार खेलते-खेलते गंगातट पर जा पहुंचे। उन्होंने वहां एक परम सुंदर स्त्री देखी। उसके रूप को देखकर शांतनु उस पर मोहित हो गए। शांतनु ने उसका परिचय पूछते हुए उसे अपनी पत्नी बनने को कहा। उस स्त्री ने इसकी स्वीकृति दे दी, लेकिन एक शर्त रखी कि आप कभी भी मुझे किसी भी काम के लिए रोकेंगे नहीं अन्यथा उसी पल मैं आपको छोड़कर चली जाऊंगी। शांतनु ने यह शर्त स्वीकार कर ली तथा उस स्त्री से विवाह कर लिया।
इस प्रकार दोनों का जीवन सुखपूर्वक बीतने लगा। समय बीतने पर शांतनु के यहां सात पुत्रों ने जन्म लिया, लेकिन सभी पुत्रों को उस स्त्री ने गंगा नदी में डाल दिया। शांतनु यह देखकर भी कुछ नहीं कर पाएं क्योंकि उन्हें डर था कि यदि मैंने इससे इसका कारण पूछा तो यह मुझे छोड़कर चली जाएगी। आठवां पुत्र होने पर जब वह स्त्री उसे भी गंगा में डालने लगी तो शांतनु ने उसे रोका और पूछा कि वह यह क्यों कर रही है?
उस स्त्री ने बताया कि मैं देवनदी गंगा हूं तथा जिन पुत्रों को मैंने नदी में डाला था वे सभी वसु थे जिन्हें वसिष्ठ ऋषि ने श्राप दिया था। उन्हें मुक्त करने लिए ही मैंने उन्हें नदी में प्रवाहित किया। आपने शर्त न मानते हुए मुझे रोका। इसलिए मैं अब जा रही हूं। ऐसा कहकर गंगा शांतनु के आठवें पुत्र को लेकर अपने साथ चली गई।
गंगा जब शांतनु के आठवे पुत्र को साथ लेकर चली गई तो राजा शांतनु बहुत उदास रहने लगे। इस तरह थोड़ा और समय बीता। शांतनु एक दिन गंगा नदी के तट पर घूम रहे थे। वहां उन्होंने देखा कि गंगा में बहुत थोड़ा जल रह गया है और वह भी प्रवाहित नहीं हो रहा है। इस रहस्य का पता लगाने जब शांतनु आगे गए तो उन्होंने देखा कि एक सुंदर व दिव्य युवक अस्त्रों का अभ्यास कर रहा है और उसने अपने बाणों के प्रभाव से गंगा की धारा रोक दी है।
यह दृश्य देखकर शांतनु को बड़ा आश्चर्य हुआ। तभी वहां शांतनु की पत्नी गंगा प्रकट हुई और उन्होंने बताया कि यह युवक आपका आठवां पुत्र है। इसका नाम देवव्रत है। इसने वसिष्ठ ऋषि से वेदों का अध्ययन किया है तथा परशुरामजी से इसने समस्त प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों को चलाने की कला सीखी है। यह श्रेष्ठ धनुर्धर है तथा इंद्र के समान इसका तेज है।
देवव्रत का परिचय देकर गंगा उसे शांतनु को सौंपकर चली गई। शांतनु देवव्रत को लेकर अपनी राजधानी में लेकर आए तथा शीघ्र ही उसे युवराज बना दिया। गंगापुत्र देवव्रत ने अपनी व्यवहारकुशलता के कारण शीघ्र प्रजा को अपना हितैषी बना लिया।
एक दिन राजा शांतनु यमुना नदी के तट पर घूम कर रहे थे। तभी उन्हें वहां एक सुंदर युवती दिखाई दी। परिचय पूछने पर उसने स्वयं को निषाद कन्या सत्यवती बताया। उसके रूप को देखकर शांतनु उस पर मोहित हो गए तथा उसके पिता के पास जाकर विवाह का प्रस्ताव रखा। तब उस युवती के पिता ने शर्त रखी कि यदि मेरी कन्या से उत्पन्न संतान ही आपके राज्य की उत्तराधिकारी हो तो मैं इसका विवाह आपके साथ करने को तैयार हूं।
यह सुनकर शांतनु ने निषादराज को इंकार कर दिया क्योंकि वे पहले ही देवव्रत को युवराज बना चुके थे। इस घटना के बाद राजा शांतनु चुप से रहने लगे। देवव्रत ने इसका कारण जानना चाहा तो शांतनु ने कुछ नहीं बताया। तब देवव्रत ने शांतनु के मंत्री से पूरी बात जान ली तथा स्वयं निषादराज के पास जाकर पिता शांतनु के लिए उस युवती की मांग की। निषादराज ने देवव्रत के सामने भी वही शर्त रखी। तब देवव्रत ने प्रतिज्ञा लेकर कहा कि आपकी पुत्री के गर्भ से उत्पन्न महाराज शांतनु की संतान ही राज्य की उत्तराधिकारी होगी।
तब निषादराज ने कहा यदि तुम्हारी संतान ने मेरी पुत्री की संतान को मारकर राज्य प्राप्त कर लिया तो क्या होगा? तब देवव्रत ने सबके सामने अखण्ड ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा ली तथा सत्यवती को ले जाकर अपने पिता को सौंप दिया। तब पिता शांतनु ने देवव्रत को इच्छामृत्यु का वरदान दिया। देवव्रत की इस भीषण प्रतिज्ञा के कारण ही उनका नाम भीष्म पड़ा।
भरतवंशी राजा शांतनु को पत्नी सत्यवती से दो पुत्र हुए- चित्रांगद और विचित्रवीर्य। दोनों ही बड़े होनहार व पराक्रमी थे। अभी चित्रांगद ने युवावस्था में प्रवेश भी नहीं किया था कि राजा शांतनु स्वर्गवासी हो गए। तब भीष्म ने माता सत्यवती की सम्मति से चित्रांगद को राजगद्दी पर बैठाया। लेकिन कुछ समय तक राज करने के बाद ही उसी के नाम के गंधर्वराज चित्रांगद ने उसका वध कर दिया।
तब भीष्म में विचित्रवीर्य को राजा बनाया। जब भीष्म ने देखा कि विचित्रवीर्य युवा हो चुका है तो उन्होंने उसका विवाह करने का विचार किया। उन्हीं दिनों काशी के राजा की तीन कन्याओं का स्वयंवर भी हो रहा था। लेकिन काशी नरेश ने द्वेषतापूर्वक हस्तिनापुर को न्योता नहीं दिया। क्रोधित होकर भीष्म अकेले ही स्वयंवर में गए और वहां उपस्थित सभी राजाओं व काशी नरेश को हराकर उनकी तीनों कन्याओं अंबा, अंबिका व अंबालिका को हर लाए।
तब काशी नरेश की बड़ी पुत्री अंबा ने भीष्म से कहा कि वह मन ही मन में राजा शाल्व को अपना पति मान चुकी है। यह बात जानकर भीष्म ने अंबा को उसके इच्छानुसार जाने की अनुमति दे दी तथा शेष दो कन्याओं का विवाह विचित्रवीर्य से कर दिया।
भीष्म ने क्यों किया अपने गुरु से युद्ध
महाभारत के अनुसार भीष्म काशी में हो रहे स्वयंवर से काशीराज की पुत्रियों अंबा, अंबिका और अंबालिका को अपने छोटे भाई विचित्रवीर्य के लिए उठा लाए थे। तब अंबा ने भीष्म को बताया कि मन ही मन किसी और का अपना पति मान चुकी है तब भीष्म ने उसे ससम्मान छोड़ दिया, लेकिन हरण कर लिए जाने पर उसने अंबा को अस्वीकार कर दिया। तब अंबा भीष्म के गुरु परशुराम के पास पहुंची और उन्हें अपनी व्यथा सुनाई।
अंबा की बात सुनकर भगवान परशुराम ने भीष्म को उससे विवाह करने के लिए कहा, लेकिन ब्रह्मचारी होने के कारण भीष्म ने ऐसा करने से इंकार कर दिया। तब परशुराम और भीष्म में भीषण युद्ध हुआ और अंत में अपने पितरों की बात मानकर भगवान परशुराम ने अपने अस्त्र रख दिए। इस प्रकार इस युद्ध में न किसी की हार हुई न किसी की जीत। अगले जन्म में अंबा ने शिखंडी के रूप में जन्म लिया और भीष्म की मृत्यु का कारण बनी।
जिस समय कौरवों और पांडवों में युद्ध शुरु होने वाला था। उसी समय धर्मराज युधिष्ठिर अपने रथ से उतर कर कौरव सेना की ओर चल दिए। कौरव सेना में जाकर युधिष्ठिर ने सबसे पहले भीष्म पितामह से आशीर्वाद लिया और युद्ध करने के लिए उनसे आज्ञा मांगी। तब भीष्म ने कहा कि- यदि तुम इस समय मेरे पास न आए होते तो मैं तुम्हारी पराजय के लिए तुम्हें श्राप दे देता। लेकिन अब मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूं।
तुम युद्ध करो, तुम्हारी ही विजय होगी। तब युधिष्ठिर ने भीष्म पितामह से कहा कि- आपको तो युद्ध में कोई भी जीत नहीं सकता तो हम युद्ध कैसे जीत पाएंगे। भीष्म ने कहा- संग्राम भूमि में युद्ध करते समय मुझे जीत सके, ऐसी तो मुझे कोई दिखाई नहीं देता। मेरी मृत्यु का भी कोई निश्चित समय नहीं है। इसलिए तुम किसी दूसरे समय आकर मुझसे मिलना।
जब पांडवों व कौरवों का युद्ध प्रारंभ हुआ, उस समय कौरवों के सेनापति भीष्म पितामह ही थे। युद्ध के तीसरे दिन भीष्म पितामह ने पांडवों की सेना पर भयंकर बाण वर्षा कर भयभीत कर दिया। यह देखकर श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि वह भीष्म पितामह से युद्ध करे। अर्जुन और भीष्म पितामह में भयंकर युद्ध हुआ, लेकिन थोड़ी देर बाद अर्जुन युद्ध में ढीले पड़ गए और पांडवों की सेना में भगदड़ मच गई। यह देखकर श्रीकृष्ण को बहुत क्रोध आया और वे रथ से उतर गए।
श्रीकृष्ण अपने हाथ में सुदर्शन चक्र लेकर बड़ी तेजी से भीष्म की ओर झपटे। श्रीकृष्ण के इस रूप को देखकर भीष्म बिल्कुल भी भयभीत नहीं हुए। भगवान श्रीकृष्ण को ऐसा करते देख अर्जुन रोकने के लिए उनके पीछे दौड़े। अर्जुन ने श्रीकृष्ण को आश्वस्त किया कि अब मैं युद्ध में ढिलाई नहीं करुंगा आप युद्ध मत कीजिए। अर्जुन की बात सुनकर श्रीकृष्ण शांत हो गए और पुन: अर्जुन का रथ हांकने लगे।
महाभारत के युद्ध में भीष्म पितामह ने पांडव सेना में भयंकर मारकाट मचाई। पांडव भी भीष्म का यह रूप देखकर डर गए। तब उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण से भीष्म पितामह को हराने का उपाय पूछा। तब भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि यह उपाय तो स्वयं भीष्म ही बता सकते हैं। तब पांचों पांडव भगवान श्रीकृष्ण के साथ भीष्म पितामह से मिलने गए और उनसे पूछा कि आपको युद्ध में कैसे हराया जा सकता है।
तब भीष्म ने बताया कि तुम्हारी सेना में जो शिखंडी है, वह पहले एक स्त्री था, बाद में पुरुष बना। अर्जुन यदि शिखंडी को आगे करके मुझ पर बाणों का प्रहार करें, वह जब मेरे सामने होगा तो मैं बाण नहीं चलाऊंगा। इस मौके का फायदा उठाकर अर्जुन मुझे बाणों से घायल कर दें। इस प्रकार मुझ पर विजय प्राप्त करने के बाद ही तुम यह युद्ध जीत सकते हो।
महाभारत युद्ध के दसवें दिन भी भीष्म पितामह ने पांडवों की सेना में भयंकर मारकाट मचाई। यह देखकर युधिष्ठिर ने अर्जुन से भीष्म पितामह को रोकने के लिए कहा। अर्जुन शिखंडी को आगे करके भीष्म से युद्ध करने पहुंचे। शिखंडी को देखकर भीष्म ने अर्जुन पर बाण नहीं चलाए और अर्जुन अपने तीखे बाणों से भीष्म पितामह को बींधने लगे।
इस प्रकार बाणों से छलनी होकर भीष्म पितामह सूर्यास्त के समय अपने रथ से गिर गए। उस समय उनका मस्तक पूर्व दिशा की ओर था। उन्होंने देखा कि इस समय सूर्य अभी दक्षिणायन में है, अभी मृत्यु का उचित समय नही हैं, इसलिए उन्होंने उस समय अपने प्राणों का त्याग नहीं किया।
महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा कि इस समय पितामह भीष्म बाणों की शैय्या पर हैं। आप उनके पास चलकर उनके चरणों को प्रणाम कीजिए और आपके मन में जितने भी संदेह हो, उनके बारे में पूछ लीजिए। श्रीकृष्ण की बात मानकर युधिष्ठिर भीष्म पितामह के पास गए और उनसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का ज्ञान प्राप्त किया। युधिष्ठिर को ज्ञान देने के बाद भीष्म पितामह ने उनसे कहा कि अब तुम जाकर न्यायपूर्वक शासन करो, जब सूर्य उत्तरायण हो जाए, उस समय फिर मेरे पास आना।
जब सूर्यदेव उत्तरायण हो गए तब युधिष्ठिर सहित सभी लोग भीष्म पितामह के पास पहुंचे। उन्हें देखकर भीष्म पितामह ने कहा कि इन तीखे बाणों पर शयन करते हुए मुझे 58 दिन हो गए हैं। उन्होंने श्रीकृष्ण को संबोधित करते हुए कहा कि अब मैं प्राणों का त्याग करना चाहता हूं। ऐसा कहकर भीष्मजी कुछ देर तक चुपचाप रहे। इसके बाद वे मन सहित प्राणवायु को क्रमश: भिन्न-भिन्न धारणाओं में स्थापित करने लगे।
भीष्मजी का प्राण उनके जिस अंग को त्यागकर ऊपर उठता था, उस अंग के बाण अपने आप निकल जाते और उनका घाव भी भर जाता। भीष्मजी ने अपने देह के सभी द्वारों को बंद करके प्राण को सब ओर से रोक लिया, इसलिए वह उनका मस्तक (ब्रह्म रंध्र) फोड़कर आकाश में चला गया। इस प्रकार महात्मा भीष्म के प्राण आकाश में विलीन हो गए।
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