महाभारतकाल में अविाहित कुंती को सूर्यदेव की कृपा से दिव्य कवच-कुंडलों से युक्त एक पुत्र जन्मा था, जिसका नाम था- कर्ण. कुंती ने कर्ण को त्याग दिया था. बाद में कर्ण को अधिरथ और उनकी पत्नी राधा ने पाला- इसलिए, कर्ण राधेय कहलाया।
कर्ण के पिता सूर्य और माता कुंती थी, पर चुकी उनका पालन एक रथ चलाने वाले ने किया था, इसलिए वो सूतपुत्र कहलाएं और इसी कारण उन्हें वो सम्मान नहीं मिला, जिसके वो अधिकारी थे।
कर्ण द्रोपदी को पसंद करता था और उसे अपनी पत्नी बनाना चाहता था साथ ही द्रौपदी भी कर्ण से बहुत प्रभावित थी और उसकी तस्वीर देखते ही यह निर्णय कर चुकी थी कि वह स्वयंवर में उसी के गले में वरमाला डालेगी। लेकिन फिर भी उसने ऐसा नहीं किया।
द्रोपदी और कर्ण, दोनों एक-दूसरे से विवाह करना चाहते थे लेकिन सूतपुत्र होने की वजह से यह विवाह नहीं हो पाया। नियति ने इन दोनों का विवाह नहीं होने दिया, जिसके परिणामस्वरूप कर्ण, पांडवों से नफरत करने लगा।
द्रोपदी ने कर्ण के विवाह प्रस्ताव को ठुकरा दिया क्योंकि उसे अपने परिवार के सम्मान को बचाना था। क्या आप जानते है द्रौपदी के विवाह प्रस्ताव को ठुकरा देने के बाद कर्ण ने दो विवाह किए थे। चलिए आपको बताते हैं किन हालातों में किससे कर्ण ने विवाह किया था।
अविवाहित रहते हुए कुंती ने कर्ण को जन्म दिया था। समाज के लांछनों से बचने के लिए उसने कर्ण को स्वीकार नहीं किया। कर्ण का पालन एक रथ चलाने वाले ने किया जिसकी वजह से कर्ण को सूतपुत्र कहा जाने लगा। कर्ण को गोद लेने वाले उसके पिता आधीरथ चाहते थे कि कर्ण विवाह करे। पिता की इच्छा को पूरा करने के लिए कर्ण ने रुषाली नाम की एक सूतपुत्री से विवाह किया। कर्ण की दूसरी पत्नी का नाम सुप्रिया था। सुप्रिया का जिक्र महाभारत की कहानी में ज्यादा नहीं किया गया है।
रुषाली और सुप्रिया से कर्ण के नौ पुत्र थे। वृशसेन, वृशकेतु, चित्रसेन, सत्यसेन, सुशेन, शत्रुंजय, द्विपात, प्रसेन और बनसेन। कर्ण के सभी पुत्र महाभारत के युद्ध में शामिल हुए, जिनमें से 8 वीरगति को प्राप्त हो गए। प्रसेन की मौत सात्यकि के हाथों हुई, शत्रुंजय, वृशसेन और द्विपात की अर्जुन, बनसेन की भीम, चित्रसेन, सत्यसेन और सुशेन की नकुल के द्वारा मृत्यु हुई थी।
वृशकेतु एकमात्र ऐसा पुत्र था जो जीवित रहा। कर्ण की मौत के पश्चात उसकी पत्नी रुषाली उसकी चिता में सती हो गई थी। महाभारत के युद्ध के पश्चात जब पांडवों को यह बात पता चली कि कर्ण उन्हीं का ज्येष्ठ था, तब उन्होंने कर्ण के जीवित पुत्र वृशकेतु को इन्द्रप्रस्थ की गद्दी सौंपी थी। अर्जुन के संरक्षण में वृशकेतु ने कई युद्ध भी लड़े थे।
जब कर्ण मृत्युशैया पर थे तब कृष्ण उनके पास उनके दानवीर होने की परीक्षा लेने के लिए आए। कर्ण ने कृष्ण को कहा कि उसके पास देने के लिए कुछ भी नहीं है। ऐसे में कृष्ण ने उनसे उनका सोने का दांत मांग लिया।
कर्ण ने अपने समीप पड़े पत्थर को उठाया और उससे अपना दांत तोड़कर कृष्ण को दे दिया। कर्ण ने एक बार फिर अपने दानवीर होने का प्रमाण दिया जिससे कृष्ण काफी प्रभावित हुए। कृष्ण ने कर्ण से कहा कि वह उनसे कोई भी वरदान मांग़ सकते हैं।
कर्ण ने कृष्ण से कहा कि एक निर्धन सूत पुत्र होने की वजह से उनके साथ बहुत छल हुए हैं। अगली बार जब कृष्ण धरती पर आएं तो वह पिछड़े वर्ग के लोगों के जीवन को सुधारने के लिए प्रयत्न करें। इसके साथ कर्ण ने दो और वरदान मांगे।
दूसरे वरदान के रूप में कर्ण ने यह मांगा कि अगले जन्म में कृष्ण उन्हीं के राज्य में जन्म लें और तीसरे वरदान में उन्होंने कृष्ण से कहा कि उनका अंतिम संस्कार ऐसे स्थान पर होना चाहिए जहां कोई पाप ना हो।
पूरी पृथ्वी पर ऐसा कोई स्थान नहीं होने के कारण कृष्ण ने कर्ण का अंतिम संस्कार अपने ही हाथों पर किया। इस तरह दानवीर कर्ण मृत्यु के पश्चात साक्षात वैकुण्ठ धाम को प्राप्त हुए।
कर्ण में सूर्य देव के साथ दम्बोद्भव असुर का भी था अंश -
सूर्यदेवता बड़े चिंतित हुए। वे इतना तो समझ ही पा रहे थे कि यह असुर इस वरदान का दुरपयोग करेगा, किन्तु उसकी तपस्या के आगे वे मजबूर थे।उन्हे उसे यह वरदान देना ही पडा । इन कवचों से सुरक्षित होने के बाद वही हुआ जिसका सूर्यदेव को डर था । दम्बोद्भव अपने सहस्र कवचों की सहक्ति से अपने आप को अमर मान कर मनचाहे अत्याचार करने लगा । वह “सहस्र कवच” नाम से जाना जाने लगा ।
उधर सती जी के पिता “दक्ष प्रजापति” ने अपनी पुत्री “मूर्ति” का विवाह ब्रह्मा जी के मानस पुत्र “धर्म” से किया । मूर्ति ने सहस्र्कवच के बारे में सुना हुआ था – और उन्होंने श्री विष्णु से प्रार्थना की कि इसे ख़त्म करने के लिए वे आयें । विष्णु जी ने उसे आश्वासन दिया कि वे ऐसा करेंगे ।
समयक्रम में मूर्ति ने दो जुडवा पुत्रों को जन्म दिया जिनके नाम हुए नर और नारायण । दोनों दो शरीरों में होते हुए भी एक थे – दो शरीरों में एक आत्मा । विष्णु जी ने एक साथ दो शरीरों में नर और नारायण के रूप में अवतरण किया था । दोनों भाई बड़े हुए। एक बार दम्बोध्भव इस वन पर चढ़ आया । तब उसने एक तेजस्वी मनुष्य को अपनी ओर आते देखा और भय का अनुभव किया ।
उस व्यक्ति ने कहा कि मैं “नर” हूँ , और तुमसे युद्ध करने आया हूँ । भय होते भी दम्बोद्भव ने हंस कर कहा – तुम मेरे बारे में जानते ही क्या हो ? मेरा कवच सिर्फ वही तोड़ सकता है जिसने हज़ार वर्षों तक तप किया हो । नर ने हँस कर कहा कि मैं और मेरा भाई नारायण एक ही हैं – वह मेरे बदले तप कर रहे हैं, और मैं उनके बदले युद्ध कर रहा हूँ ।
युद्ध शुरू हुआ , और सहस्र कवच को आश्चर्य होता रहा कि सच ही में नारायण के तप से नर की शक्ति बढती चली जा रही थी । जैसे ही हज़ार वर्ष का समय पूर्ण हुआ, नर ने सहस्र कवच का एक कवच तोड़ दिया । लेकिन सूर्य के वरदान के अनुसार जैसे ही कवच टूटा नर मृत हो कर वहीँ गिर पड़े । सहस्र कवच ने सोचा, कि चलो एक कवच गया ही सही किन्तु यह तो मर ही गया ।
तभी उसने देखा की नर उसकी और दौड़े आ रहा है – और वह चकित हो गया । अभी ही तो उसके सामने नर की मृत्यु हुई थी और अभी ही यही जीवित हो मेरी और कैसे दौड़ा आ रहा है ??? लेकिन फिर उसने देखा कि नर तो मृत पड़े हुए थे, यह तो हुबहु नर जैसे प्रतीत होते उनके भाई नारायण थे – जो दम्बोद्भव की और नहीं, बल्कि अपने भाई नर की और दौड़ रहे थे ।
दम्बोद्भव ने अट्टहास करते हुए नारायण से कहा कि तुम्हे अपने भाई को समझाना चाहिए था – इसने अपने प्राण व्यर्थ ही गँवा दिए ।
नारायण शांतिपूर्वक मुस्कुराए । उन्होंने नर के पास बैठ कर कोई मन्त्र पढ़ा और चमत्कारिक रूप से नर उठ बैठे । तब दम्बोद्भव की समझ में आया कि हज़ार वर्ष तक शिवजी की तपस्या करने से नारायण को मृत्युंजय मन्त्र की सिद्धि हुई है – जिससे वे अपने भाई को पुनर्जीवित कर सकते हैं ।
अब इस बार नारायण ने दम्बोद्भव को ललकारा और नर तपस्या में बैठे । हज़ार साल के युद्ध और तपस्या के बाद फिर एक कवच टूटा और नारायण की मृत्यु हो गयी । फिर नर ने आकर नारायण को पुनर्जीवित कर दिया, और यह चक्र फिर फिर चलता रहा ।इस तरह ९९९ बार युद्ध हुआ । एक भाई युद्ध करता दूसरा तपस्या । हर बार पहले की मृत्यु पर दूसरा उसे पुनर्जीवित कर देता । जब 999 कवच टूट गए तो सहस्र्कवच समझ गया कि अब मेरी मृत्यु हो जायेगी । तब वह युद्ध त्याग कर सूर्यलोक भाग कर सूर्यदेव के शरणागत हुआ ।
नर और नारायण उसका पीछा करते वहां आये और सूर्यदेव से उसे सौंपने को कहा । किन्तु अपने भक्त को सौंपने पर सूर्यदेव राजी न हुए। तब नारायण ने अपने कमंडल से जल लेकर सूर्यदेव को श्राप दिया कि आप इस असुर को उसके कर्मफल से बचाने का प्रयास कर रहे हैं, जिसके लिए आप भी इसके पापों के भागीदार हुए और आप भी इसके साथ जन्म लेंगे इसका कर्मफल भोगने के लिए । इसके साथ ही त्रेतायुग समाप्त हुआ और द्वापर का प्रारम्भ हुआ ।
समय बाद कुंती जी ने अपने वरदान को जांचते हुए सूर्यदेव का आवाहन किया, और कर्ण का जन्म हुआ । लेकिन यह आम तौर पर ज्ञात नहीं है, कि , कर्ण सिर्फ सूर्यपुत्र ही नहीं है, बल्कि उसके भीतर सूर्य और दम्बोद्भव दोनों हैं । जैसे नर और नारायण में दो शरीरों में एक आत्मा थी, उसी तरह कर्ण के एक शरीर में दो आत्माओं का वास है – सूर्य और सहस्रकवच । दूसरी ओर नर और नारायण इस बार अर्जुन और कृष्ण के रूप में आये ।
कर्ण के भीतर जो सूर्य का अंश है,वही उसे तेजस्वी वीर बनाता है । जबकि उसके भीतर दम्बोद्भव भी होने से उसके कर्मफल उसे अनेकानेक अन्याय और अपमान मिलते है, और उसे द्रौपदी का अपमान और ऐसे ही अनेक अपकर्म करने को प्रेरित करता है । यदि अर्जुन कर्ण का कवच तोड़ता, तो तुरंत ही उसकी मृत्यु हो जाती ।इसिलिये इंद्र उससे उसका कवच पहले ही मांग ले गए थे।
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