दिल्ली के जाने माने व्यापारी। सेठ मनोहरदास जी उनके एक बहुत खास मित्र थे जानकीदास। अपने व्यापार की हर सलाह वे जानकीदास से लेते थे।
जानकीदास को व्यापार की गहरी समझ थी। पिछले चालीस सालों में मनोहरदास जी ने अपना व्यापार कई गुना बढ़ा लिया था।
उनकी बड़ी से फैक्ट्री में हजारो मजदूर काम करते थे। आलीशान घर बना लिया था। नौकर चाकर लगे हुए थे। बड़ी बड़ी गाड़ियां। मनोहरदास जी की पत्नी का बहुत पहले देहान्त हो चुका था। उनका एक बेटा था। दुष्यन्त, जिसे उन्होंने बहुत लाड़-प्यार से पाला था।
दुष्यन्त को सेठ जी ने पढ़ने के लिये इंग्लेंड भेज रखा था। एक दिन अचानक सेठ जी की तबियत बहुत खराब हो गई।
सेठ मनोहरदास ने अपने दोस्त को बुलवा भेजा। जानकीदास तुरन्त अस्पताल पहुंच गये।
मनोहरदास: मित्र लगता है मेरा अंतिम समय पास आ रहा है। मेरे जाने के बाद मेरे बेटे का ध्यान रखना।
जानकीदास: ऐसा क्यों बोल रहे हो तुम ठीक हो जाओगे। यहां इलाज नहीं हो पाया तो हम विदेश चलेंगे।
मनोहरदास: बस मेरा एक काम कर दो किसी तरह मेरे बेटे को बुला दो मैं उसे एक बार देखना चाहता हूं।
जानकीदास ने बिना देर किये। दुष्यन्त के आने का इंतजाम कर दिया। अगले दिन दोपहर तक दुष्यन्त अपने पिता के पास पहुंच गया।
उसे देख कर मनोहरदास ने चैन की सांस ली।
मनोहदास: बेटा मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूं। मेरे जाने के बाद सारा व्यापार तुम्हें ही सम्हालना है। एक बात याद रखना जब भी किसी ऐसी मुसीबत में फस जाओ जिसमें से निकलना तुम्हारे वश में न हो तो मेरे मित्र जानकीदास को याद करना वे तुम्हें हर मुसीबत से निकाल लेंगे।
दुष्यन्त: पापा आप ठीक हो जायेंगे। आपके सिवा मेरा कौन है?
मनोहरदास: बेटा मेरी तीन बाते याद रखना जीवन में बहुत काम आयेंगी।
पहली बात: कभी किसी गरीब पर तरस मत खाना।
दूसरी बात: कभी किसी अमीर से दोस्ती मत करना।
तीसरी बात: अंधेरे में घर से बाहर मत निकलना।
दुष्यन्त ने ध्यान से पिता की बातें सुनी। कुछ देर बाद जानकीदास भी अस्पताल पहुंच गये।
शाम के समय मनोहरदास जी ने इस संसार को त्याग दिया। पूरे घर में शोक का माहौल था।
अंतिम यात्रा की तैयारी हो रही थी। जानकीदास सारी व्यवस्था देख रहे थे। बीच बीच में वे दुष्यन्त को भी संभाल रहे थे।
इसी तरह समय बीत गया। करीब एक महीने तक दुष्यन्त पिता के शोक में घर में बैठा रहा। एक दिन जानकीदास जी उससे मिलने आये।
जानकीदास: बेटा अब तुम्हें तुम्हारे पापा का बिजनेस संभाल लेना चाहिये। उनकी भी यही इच्छा थी।
दुष्यन्त ने उनकी बात मान ली और अगले दिन से ऑफिस जाना शुरू कर दिया। कुछ दिन तक जानकीदास जी उसके साथ जाते उसे बिजनेस की सारी बातें सिखाते थे।
कुछ दिन बाद दुष्यन्त सब समझ गया। तो जानकीदास जी ने आना बंद कर दिया।
एक दिन दुष्यन्त बैठ कर सोच रहा था। तभी उसे अपने पिता की तीनों बातें याद आईं।
इसी बीच दिवाली आने वाली थी। मजदूरों को बोनस दिया जाना था। मैंनेजर फाईल लेकर दुष्यन्त के पास पहुंचा।
मैंनेजर: सर ये मजदूरों के बोनस की फाईल है। उन्हें हम एक महीने का बोनस देते हैं।
दुष्यन्त को याद आया पापा ने कहा था गरीबों पर तरस मत खाना।
दुष्यन्त: नहीं किसी को बोनस नहीं मिलेगा। ये काम करते हैं हम इन्हें सैलरी देते हैं।
बोनस न मिलने से मजदूर भड़क जाते हैं। अब वे बहुत काम करते थे। सब इधर उधर समय बर्बाद कर अपने घर चले जाते थे। इससे काम में घाटा होने लगा।
इसी बीच बहुत से व्यापारी जो दुष्यन्त की कंपनी से माल लेते थे। वे दुष्यन्त से मिलने आते थे।
लेकिन दुष्यन्त को पिता की दूसरी बात याद थी, कि अमीर से दोस्ती मत करना।
इसलिये वह उनसे ठीक से बात नहीं करता उन्हें उल्टा सीधा बोल कर भगा देता था। जिससे कंपनी को ऑडर मिलने कम हो गये।
इसके साथ ही दुष्यन्त को रात को कहीं जाना होता तो वह अपने साथ दो तीन लड़के साथ लेकर चलता था। जो बड़े से जनरेटर के साथ रथ सजा कर पूरी रोशनी लेकर चलते थे।
इससे शहर में जाम लग जाता था। घंटों जाम में फसे रहने से दुष्यन्त परेशान हो गया।
उसका व्यापार धीरे धीरे घाटे में बदलने लगा। दुष्यन्त को कुछ समझ नहीं आ रहा था।
एक दिन उसने जानकीदास जी को बुलवाया।
दुष्यन्त: चाचा जी मैंने पिता जी की तीनों बातों को व्यापार में उतारा लेकिन मुझे घाटा ही हो रहा है।
जानकीदास जी के पूछने पर दुष्यन्त ने सारी बात बता दी।
जानकीदास: बेटा तुमने अपने पिता की बातों का गलत मतलब निकाल लिया। चलो मेरे साथ।
वे उसे एक रास्ते पर ले जाते हैं। वहां कुछ गरीब बैठे थे। पास ही में एक आदमी समोसे कचौड़ी बेच रहा था।
जानकीदास: बेटा तुम्हारे पापा ने कहा गरीबों पर कभी तरस मत खाओ। इसका मतलब यह है अगर आज तुम जाकर इन गरीबों में ये समोसे खरीद कर बांट दो। तो इन्हें बिना मेहनत खाने की आदत पड़ जायेगी। कल जब तुम्हारी गाड़ी यहां से गुजरेगी तो ये इंतजार करेंगे कि अब समोसे मिलेंगे।
इससे अच्छा है हमें इन्हें काम सिखाना चाहिये जिससे ये मेहनत करके खा सके न कि इन पर तरस खाकर इन्हें भीख देनी चाहिये।
दुष्यन्त: ओ हो पापा ने इतनी गहरी बात कही थी। मैं समझ न सका।
अगले दिन दुष्यन्त, जानकीदास जी के साथ फैक्टरी गया वहां जाकर उसने सभी मजदूरों से माफी मांगी और उन्हें दो महीने का बोनस दिया। जिससे सभी मजदूर खुश होकर मेहनत से काम करने लगे।
उसके बाद वे ऑफिस में आकर बैठे।
जानकीदास: बेटा तुम्हारे पिता ने कहा कभी किसी अमीर से दोस्ती मत करना। इसका मतलब था। कि व्यापार सबसे करो लेकिन दोस्ती मत करो। क्योंकि अगर इनसे दोस्ती करोगे तो ये तुम्हारे सारे राज निकलवा लेंगे।
कहां से कच्चा माल लाते हो कितने का बनता है, कैसे बेचते हो? और साथ ही ये तुम्हें बुरी आदतों जैसे शराब आदी की लत लगा देंगे। इसलिये इनसे बचने को कहा।
दुष्यन्त: लेकिन मैंने तो सबको भगा दिया।
जानकीदास: तुम चिन्ता मत करो। सब मुझे अच्छे से जानते हैं। मैं कह दूंगा पिता के जाने के कारण बच्चा दुःखी था। कुछ दिन हम थोड़ा सस्ता करके माल बेचेंगे। सब आ जायेंगे।
दुष्यन्त: चाचाजी आपने मुझे बचा लिया अब तीसरी बात भी बता दो मैं शाम कहीं भी जाता हूं फस जाता हूं।
जानकीदास: तुम्हारे पिता ने कहा था। अंधेरे में घर से मत निकलना। इसका मतलब था। शाम को तुम अब ऑफिस से घर आओ तो अपने घर वालों के साथ समय बिताओ। घर का खाना खाओ जिसेसे तुम्हारी सेहत सही रहे। तीसरी बात तुम्हारे पास बहुत पैसे हैं रात को गुंडे बदमाश तुम पर हमला कर सकते हैं।
दुष्यन्त को अब अपने पिता की बातों की गहराई समझ में आ गई वह उनके बताये हुए रास्ते पर चलने लगा। कुछ ही समय में उसका व्यापार पहले से भी अच्छा चलने लगा।
इधर जानकीदास जी ने एक अच्छी सी लड़की देख कर दुष्यन्त का विवाह करा दिया।
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